फगुआ के बदलत स्वरुप
फगुआ कहते जवन चित्र दिमाग में उभरेला उ ह भोजपुरिया फगुआ के सामूहिकता के भाव । फागुन गजिबे महीना ह । फगुनी बयार एगो अलगे उमंग आ ख़ुशी के अहसास करावेली । प्रकृति से लेके जनावर आ अदिमी तक के ऊपर एकर खुमारी के असर लउके लागेला । अधपक गहूँ, हरियर मटर, पियराइल सरसो के फूल से सजल खेत….ओने आम के मोजर प इतरात भौंर आ एने महुवा के रसगर कोंच, फगुनी बयार के साथे कोल्हुवारे से आवत नावा गुर के सोन्ह सुबास … मन मस्त हो जाला। ऊ भोजपुरिया जेकर गाँव-जवार से इचिको संबंध होखी उ जरूर एहिके महसूस कइले होखी ।
आज से दस-पनरह बरिस पहिले तक, खेत बधार में दिन भर के मेहनत-मजूरी के बाद साँझि खने केहू के दुआर-दालान प झाल, मजीरा, ढोलक के थाप प दस पनरह आदिमी मस्त सुर में फगुआ गावत आ आपन श्रम के परिहार करत भेटा जास। ओह लोककंठ से निकलल आवाज में अतिना जोर रहत रहे कि कोस भ दूरे से सुनाय। एहि सुर में ना जाने कइसन मादकता होखे कि देह-मन में कसमसहट होखे लागे आ कंठ में सुर के सुरूर जाग जाय।गावे के लूर-ढंग भलहीं ना होखे बाकी लोक कंठ से फूटल प्राकृतिक लय में मन-प्राण के बोथा करे के अपार क्षमता ह। लोककंठ के निकलल गीत के सुन के फगुवा के रंग में स्वतः रंगा जात रहे लोकसमाज।
तेजी से आधुनिकता आ विकास क पाछा भागत गाँवन में लोककंठ से निकलल लोकगीतन के ऊ नजाकत अब कहाँ ? अब के गाँव शहरी देखाहिंसकी के प आपन डफली, आपन राग वाला कहावत के चरितार्थ करत लउकत बाड़े। । भोजपुरिया समाज के प्रमुख खासियत रहे आत्मीयता भरल हास-परिहास के प्रवृत्ति, ऊ अब पहिले जइसन कहईं लउकते नइखे । रंग-अबीर के कवनो कमी नइखे अब त महँगा होखला के बावजूद एकर ज्यादा मात्रा में ख़रीदगी होता । पूआ-पकवान आ तरह-तरह के ब्यंजन भी खूब बनता । मगर हँसी-ठिठोली, उल्लास, जीवन के ऊ मस्ती आ सामूहिकता के भावना ना जाने कहवाँ भुला गइल ? ओकर कमी बहुते खलता अब समाज में । पहिले गाँवन में देवर भउजाई के निर्विकार चुहल से भरल फगुआ के सुर गूँजे- “भर फागुन बुढ़ऊ देवर लागे” त जिनिगी के जद्दोजहद से जूझत पउढ़ बयस भउजाई के चेहरा प जवान मुसुकी के जोत बरे लागे। अब त गबरू जवान देवरो बूढ़ खूसट के मानिंद थोथ लटकवले रहता । फगुआ क रंग केहू प चढ़त आ धमाल मचावत नइखे लउकत। लोकसमाज अनावश्यक गंभीरता के लबादा ओढ़ले आपने रचल चहारदीवारी के अंदर सिमटल- दुबकल नजर आवऽता। गाँव क असली पहिचान रहे ओकर सामूहिकता, आपसी सौहार्द्र , अपनापन, निहछलता आ सोझपन जवन शहरी संस्कृति के सम्पर्क में अइला के कारण खतम होत जाता । गाँव दोहमत में जी रहल बा, ना ऊ खाँटी गँवईंपन शेष बा ना पूरहर शहरी रंग-ढंग के अपना पवले बा । ओकर गँवईपन जवन ओकर पहिचान रहे ऊ तेजी से बिलात जात बा कहईं । हमार गाँव अब फगुआ के जीअत नइखे, ओकर लहास अपना कान्हें प लिहलें घसेटात जात होखे जइसे। ना महराज, रउवा हमार गाँव देखे के जिद्द जीन करीं ई राउर भूगोल में कहईं ना भेंटाइ, बाकी ई सगरे मौजूद बा, ई रउरो भिर हो सकेला आ तनिक तानों।
लोकपरब फगुआ जतिने खेत-खलिहान, सिवान-बथान प गावत झूमत लउकत रहे ओतने ढीठ रहे अँगना-घरे में घुसे खातिर बाकिर आज ऊ घर के बहिरा निकलले नइखे चाहत, जइसे ओकर मर्दानगी बिला गइल होखे, ऊ मउगमेहरा बन के रहि गइल बा, दुखी बा, लोक श्रृंगार से कट गइल बा । रउवे सोंची कहाँ ऊ दुवार चौपाल प ढोलक, झाल, मजीरा के साथ गावत-झूमत रहे सबके साथ, आज ऊ अकेले घर में कैद बा कुछ वैज्ञानिक साज सरंजाम के साथे । आपन दुःख तकलीफ खुदे भोगे के बा, हियरा के दुख के से कहाव ? केहू भेंटाते नइखे । सभे ब्यस्त बा जइसे । रउवा के नइखे लागत भीड़ बढ़त जाता आ अदिमी अकेल होत जाता ? हमार जिया बड़ा दुखी बा की लोक मन टूट रहल बा । हमरा गाँव के रिश्ता नाता कुल्हिये टेढ़मेढ़ आ कमजोर होखत चलल जाता, हमार टूटत दिल ई सोचे खातिर मजबूर बा कि कहाँ बिला गइल ऊ सामूहिकता, सौहार्द्र ,अपनापन। एहि विकास खातिर हमनीके ना जाने कतिना आ का का मोल चुकावे के परी?
आज आपन रीति-रिवाज, परब-तेवहार, कुल्हिये हमनीके बाउर लागता । हमनीके तनी पढ़ लिख का गइनी जा कुल्हिये संस्कार रीति-रिवाज हमनीके फूहड़ बुझाता । एकरा पाछे एगो बहुत बड़ राजनीतिक साजिस लउकता । पढ़ल-लिखल त बहुते जरूरी बा लेकिन बिना सोचले-समझले आपन रीति-रिवाज से मुँह फेरल ठीक बात नइखे । हमरा त डरे लागल रहेला के हमनी के परब तेवहारन प जइसे प्रतिबंध लागत जाता ओहि तरह कवनो दिन फगुओ प कवनो प्रतिबंध ना लाग जाव । मगर हमार चिन्ता सरकारी प्रतिबंध नइखे, काहें के प्रतिबंध लोक चेतना के दबावे में हमेशा बिफल रहल बा । चिन्ता के बात बा लोक समाज क आपन बिरासत के बिसरावल । गवई के फगुवा के सहज रूप से मुहँ फेरल आ फाग-राग से रिक्त गाँव भोजपुरिया गाँव ना रह जाइ । हमार देहाती मन फगुआ के खोजत बा, आधुनिकता के साथे साथ संवेदना के भी ढूँढ रहल बा । उदास होखत फगुआ के खुश करे के उपाय ढूँढी सभे । फगुआ मू जाइ त हमनीके जी के का कइल जाइ । फगुआ मनावल जरूरी बा समाजिक सौहार्द्र खातिर, जीवन में नवका ऊर्जा भरे खातिर, टूटत-छिंटात गाँव परिवार के बटोरे खातिर ।
✍तारकेश्वर राय “तारक”